संस्कृत की राह में कभी रोड़ा नहीं बना मजहब

 


संस्कृत के प्रति अद्भुत था प्रो.किश्वर जबीं नसरीन का समर्पण
विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग की अध्यक्ष के तौर पर बनीं मिसाल
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग की अध्यक्ष रहीं प्रो.किश्वर जबीं
प्रयागराज। राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान से पढ़ाई करने वाले फिरोज खान की बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में नियुक्ति को लेकर भले ही बवाल मचा हुआ हो लेकिन, अल्पसंख्यक वर्ग से जुड़े कई ऐसे शोध छात्र और शिक्षक रहे हैं, जिन्होंने संस्कृत के पठन-पाठन में न सिर्फ अपनी पैठ बनाई बल्कि दूसरों के लिए मिसाल भी बन गए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग की पूर्व अध्यक्ष प्रो.किश्वर जबीं नसरीन इसका अनूठा उदाहरण हैं। उन्होंने जिस जिम्मेदारी और आत्मीयता से संस्कृत से नाता जोड़ा, वह तमाम अध्यापकों और संस्कृत के विद्वानों के लिए अनुकरणीय है।
उनके शिष्य रहे इलाहाबाद संग्रहालय के प्रभारी शिक्षा डॉ.राजेश मिश्र कहते हैं, प्रो.किश्वर ने जिस आत्मविश्वास के साथ संस्कृत का पठन-पाठन किया, उसे देखकर यह भेद करना कठिन था कि उनका मजहब इस्लाम है या वह किसी ब्राह्मण परिवार से हैं। शुद्ध उच्चारण और प्रवाहपूर्ण शैली से उन्होंने कभी भी यह आभास नहीं होने दिया कि उनकी मातृभाषा संस्कृत नहीं उर्दू है।
कादंबरी हो या फिर अभिज्ञान शाकुंतल का मंगलाचरण, उन्होंने अपने विद्याथियों को अद्भुत आत्मविश्वास के साथ ऐसा पढ़ाया कि वे पाठ आज भी उसी तरह ताजा हैं। उनका मजहब भले ही इस्लाम रहा लेकिन एक अध्यापक के तौर पर संस्कृत के प्रति वह पूरी तरह समर्पित रहीं। संस्कृत और इस्लाम कभी एक दूसरे की राह में बाधक नहीं बने। वह बहुत विदुषी थीं। संस्कृत में उनके लेख और शोधपत्र राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित होते रहे।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के अध्यक्ष रहे प्रो.एए फातमी कहते हैं, संस्कृत के प्रति उनका समर्पण गजब का था। वर्ष 2003 में उनकी प्रोन्नति के मौके पर जब कुछ विवाद हुआ थो तत्कालीन कुलपति प्रो.जीके मेहता ने उनका समर्थन किया। कहा, शिक्षक का विद्वान होना प्राथमिकता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह किसी मजहब को मानने वाली हैं। अपनी योग्यता के आधार पर ही वह बाद में संस्कृत विभाग की अध्यक्ष भी बनीं।
संस्कृत में पीएचडी कर
मिसाल बन गईं शाइस्ता
आकाशवाणी की उद्घोषिका और कथा लेखिका शाइस्ता फाखरी ने भी दायरा शाह अजमल के सूफियाना माहौल में रहकर संस्कृत से ऐसा नाता जोड़ा कि एमए के बाद उन्होंने संस्कृत में ही पीएचडी भी की। लीक से अलग हटकर अपनी राह बनाने वाली शाइस्ता को भी शुरुआती तौर पर लोगों ने टोका लेकिन उन्होंने संस्कृत से अपना रिश्ता बनाए रखा। इसी तरह रसूलपुर में रहने वाले इस्लामिया कॉलेज के शिक्षक मौलवी सफीउल्लाह भी गजब के आत्मविश्वास के साथ अपने विद्यार्थियों को हिंदी के साथ संस्कृत पढ़ाते थे।
उर्दू को मुसलमानों की भाषा कहना मुनासिब नहीं
जबान का कोई मजहब नहीं होता है, सो उर्दू को भी मुसलमानों की भाषा कहना कतई मुनासिब नहीं है। और तो और इसे लश्करी जबान कहना भी बेमानी है। किसी भी भाषा की तरह उर्दू में तमाम कल्चरल बातें हैं। ऐसे में अगर हिन्दी से उर्दू के शब्द निकाल दिए गए तो ये खत्म हो जाएंगी। और तो और उर्दू में संस्कृत के तमाम शब्द शामिल हैं। हिन्दी में आज दवाई, मल्लाह, नीलाम, चारपाई जैसे जाने कितने शब्द हैं, जिनका सही तौर पर दूसरा कोई विकल्प नहीं है।
पद्मश्री शम्सुर्रहमान फारूकी


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