<no title>महाराष्ट्र में शिवसेना को 'सर्वधर्म' तक आना होगा, कांग्रेस को 'सरेंडर' पर सफाई देने में लगेगा वक्त

अगर यूं कहें कि महाराष्ट्र की राजनीति अब नए-नए सियासी प्रयोगों की पाठशाला बन गई है, तो कहना गलत नहीं होगा। शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की सरकार बने अभी दो दिन नहीं हुए हैं कि दूसरे राज्यों में भी इस प्रयोग को दोहराने की बात कही जाने लगी है। शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत ने तो इस प्रयोग को गोवा में आजमाने की सार्वजनिक घोषणा कर दी है।



'सर्वधर्म' तक कैसे आएगी शिवसेना?


इन सभी बातों के बीच राजनीति एवं समाजशास्त्र के विशेषज्ञों ने एक सवाल उठा दिया है। सवाल ये है कि क्या महाराष्ट्र में शिवसेना को अब 'सर्वधर्म' तक आना होगा और कांग्रेस पार्टी को अपने सरेंडर पर सफाई देने में कितना वक्त लगेगा। महाराष्ट्र में सर्वधर्म या धर्मनिरपेक्षता को लेकर शिवसेना और कांग्रेस के बारे में जैसी संभावनाएं नजर आ रही हैं, अभी उनकी सही स्थिति का आंकलन करना बेहद मुश्किल है। बाल ठाकरे जिस मराठी गौरव और हिंदुत्व का प्रतीक रहे, शिवसेना को अब उसके स्वभाव में बदलाव लाना पड़ेगा।  

'सेक्यूलर' शब्द से उद्धव की घेराबंदी


जेएनयू में समाजशास्त्र विभाग के पूर्व प्रोफेसर एवं राजनीतिक विशेषज्ञ आनंद कुमार ने महाराष्ट्र को लेकर अमर उजाला डॉट कॉम के साथ खास बातचीत की है। प्रो. कुमार का कहना है कि आने वाले वक्त में वहां पर कई तरह के राजनीतिक और सामाजिक बदलाव देखने को मिलेंगे। एक बात तो तय है कि महाराष्ट्र में शिवसेना को कांग्रेस और एनसीपी के साथ अपने पांव जमाने हैं, तो उसे 'सर्वधर्म' तक आना ही पड़ेगा। चाहे वह मुखौटे के तौर पर ही क्यों न आए। जिस 'सेक्यूलर' शब्द को लेकर उद्धव ठाकरे को घेरने का प्रयास हो रहा है, उसकी अपनी एक अलग परिभाषा है। वह संविधान में भी लिखी है।
अब यहां पर एक बड़ा सवाल खड़ा होता है कि संविधान में लिखित 'धर्मनिरपेक्षता' को कितने लोग सही तरीके से जानते हैं। राजनेताओं की बात करें, तो वे अपने फायदे के मुताबिक, इस शब्द को परिभाषित कर लेते हैं। अभी तक महाराष्ट्र में शिवसेना, मराठी गौरव और हिंदुत्व का प्रतीक बनकर किंगमेकर की भूमिका में रहती आई है। यह पहला मौका है जब बाल ठाकरे परिवार का कोई सदस्य सीधे तौर पर सत्ता में आया है।

हिंदुत्व से परे सर्वधर्म का रास्ता अपनाना होगा!


स्वभाव बदले या न बदले, मगर शिवसेना को बाल ठाकरे के हिंदुत्व से परे हटकर सर्वधर्म के रास्ते पर आना होगा। हम यह नहीं कह रहे हैं कि वह हमेशा के लिए इस नए बदलाव का हिस्सा बन रही है, लेकिन जब तक उसके साथ एनसीपी और कांग्रेस जैसी पार्टियां हैं, तब तक उसे अपनी मूल विचारधारा में बदलाव लाना ही पड़ेगा। महाराष्ट्र में मुस्लिम आबादी करीब 18-20 फीसदी है। मुंबई की बात करें तो यह आबादी एक तिहायी तक पहुंच गई है। ऐसे में शिवसेना केवल हिंदुत्व के एजेंडे पर आगे बढ़ेगी, यह संभव नहीं है। उसे धर्मनिरपेक्षता का चोला ओढ़ना ही पड़ेगा।

बाल ठाकरे के कायदे कानून अब नहीं चलेंगे


बाल ठाकरे के कायदे कानून अब नहीं चलेंगे, यह बात उद्धव ठाकरे जितनी जल्द समझ लेंगे, उतना ही ठीक रहेगा। अन्यथा कांग्रेस, जो खुद को धर्मनिरपेक्ष पार्टी मानती है, वह उसे सर्वधर्म की राह पर आने के लिए मजबूर कर देगी। प्रो. कुमार कहते हैं कि भले ही कुछ समय के लिए सही, मगर शिवसेना को बाल ठाकरे की विचारधारा का त्याग करना होगा। मुझे नहीं लगता कि वह पार्टी अपना स्वभाव बदलेगी, मगर कुछ समय के लिए कांग्रेस के साथ सर्वधर्म का मुखौटा पहनकर चलना शिवसेना की मजबूरी रहेगी।

कांग्रेस को 'सरेंडर' की सफाई देने में लंबा वक्त लगेगा 


यहां पर विचारधारा को लेकर जितनी विकट स्थिति शिवसेना की है, कांग्रेस के लिए भी वह कम नहीं है। खैर, कांग्रेस भी अब बदल ही रही है। वह पहले वाली कहां रही। नेहरू के समय जो कांग्रेस थी, वह आज कहां है। डॉ. मनमोहन के समय में उद्योगपतियों वाली कांग्रेस हो गई। यदि इंदिरा गांधी की बात करें तो उनके जमाने में राष्ट्रवादी कांग्रेस थी। मौजूदा समय की बात करें तो एक नई तरह की कांग्रेस देखने को मिल रही है। उसे दबाव की कांग्रेस कहा जाता है।

मैडम या सर, के दफ्तर से जो आदेश आ जाता है वही कांग्रेस बन जाता है। वही कांग्रेस जो महाराष्ट्र में शिवसेना को भाजपा से कहीं ज्यादा हिंदुत्व और कट्टरवादी पार्टी मानती थी, वह अब शिवसेना के साथ है।
लोगों के सामने कांग्रेस को इस सवाल का जवाब देना पड़ेगा कि उसने शिवसेना के सामने सरेंडर क्यों किया है। हो सकता है कि इस सरेंडर बाबत जनता को समझाने में दशक लग जाए। बतौर डॉ. कुमार, चलो मान लिया कि शिवसेना हिंदुत्व की राह से कुछ समय के लिए दूर हट रही है, मगर उसके मराठी गौरव का क्या होगा। इससे तो वह दूर नहीं होगी। कांग्रेस पार्टी के लिए शिवसेना की ये दोनों ही विचारधाराएं गले की फांस की तरह चुभती रहेंगी।
हां, एक अंतिम बात, सर्वधर्म और धर्मनिरपेक्षता, ये शब्द राजनीतिक दलों की मनमर्जी के मुताबिक ढलते रहते हैं। जब तक जिसे भी इससे जो फायदा मिल जाए, वही ठीक। महाराष्ट्र में फिलहाल सभी दल इसी थ्योरी पर चल रहे हैं।