भाजपा के साथ विहिप ने भी किया था अयोध्या एक्ट का विरोध, अब ले रहे हैं उसी कानून का सहारा
बाबरी ढांचा ढहाए जाने के तत्काल बाद केंद्र सरकार ने संघ पर छह माह के लिए प्रतिबंध लगा दिया था। उसके अनुषांगिक संगठन विहिप, बजरंग दल, दुर्गावाहिनी आदि से जुड़े लोगों की धर-पकड़ चल रही थी। इसी दौरान 7 जनवरी, 1993 को तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने अयोध्या एक्ट को मंजूरी दे दी थी। बाद में इसे बिल के रूप जब संसद में पेश किया गया तो भाजपा ने कड़ा विरोधा जताया।


दरअसल भाजपा को आशंका थी कि कहीं कांग्रेस राम मंदिर बनवाकर श्रेय न ले ले। तत्कालीन गृहमंत्री एसबी चव्हाण ने इस बिल को मंजूरी के लिए लोकसभा के सामने रखा था। पास होने के बाद इसे अयोध्या अधिनियम कहा गया। हालांकि उस वक्त भाजपा ने इसका विरोध किया था। नरसिंहा राव सरकार इस अधिनियम के जरिए 2.77 एकड़ की विवादित भूमि ही नहीं, बल्कि इसके चारों ओर की 60.70 एकड़ जमीन भी अधिगृहीत कर रही थी।
इस पर कांग्रेस सरकार राम मंदिर, एक मस्जिद, म्यूजियम और अन्य सुविधाओं का निर्माण करना चाहती थी। तत्कालीन भाजपा उपाध्यक्ष एसएस भंडारी ने इस कानून को पक्षपातपूर्ण, तुच्छ और प्रतिकूल बताते हुए खारिज कर दिया था। भाजपा के साथ मुस्लिम संगठनों ने भी इस कानून का विरोध किया था। नरसिंहा राव सरकार ने अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से भी इस मसले पर सलाह मांगी थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने राय देने से मना कर दिया था।
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा था कि क्या राम जन्मभूमि/बाबरी मस्जिद की विवादित जमीन पर पहले कोई हिंदू मंदिर या हिंदू ढांचा था। सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों जस्टिस एमएन वेंकटचलैया, जेएस वर्मा, जीएन रे, एएम अहमदी और एसपी भरूचा की खंडपीठ ने इन सवालों पर विचार तो किया लेकिन कोई जवाब नहीं दिया।


सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर, मस्जिद समेत अन्य सुविधाओं का किया था समर्थन



वरिष्ठ अधिवक्ता मदन मोहन पांडेय बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या एक्ट की व्याख्या की थी। बहुमत से किए फैसले में एक्ट के एक खंड को रद्द कर दिया था, जिसमें इस मामले में चल रही सारी सुनवाइयों को खत्म किए जाने की बात कही गई थी। हालांकि अयोध्या एक्ट रद्द नहीं किया गया था।
इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने अधिगृहीत जमीन पर एक राम मंदिर, एक मस्जिद और लाइब्रेरी और दूसरी सुविधाओं के इंतजाम की बात का समर्थन किया था लेकिन इस आदेश को राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी नहीं बताया था। इसके चलते अयोध्या एक्ट लटक गया और व्यर्थ हो गया।
मोदी सरकार ने भी चुनाव से पहले किया था प्रयास
इसी साल 29 जनवरी को केंद्र की मोदी सरकार ने भी एक याचिका दायर कर शीर्ष अदालत से आग्रह किया था कि उसे अयोध्या में 2.77 एकड़ विवादित स्थल के आसपास अधिगृहीत की गई 67 एकड़ भूमि उसके असली मालिकों को सौंपने की अनुमति दी जाए। केंद्र ने दावा किया है कि सिर्फ 0.313 एकड़ भूमि ही विवादित है जिस पर वह ढांचा था, जिसे कारसेवकों ने 6 दिसंबर 1992 को ढहा दिया था।




अयोध्या एक्ट से भूमि मांगने की और याचिकाएं भी हुईं रद्द



इसी साल फरवरी में भी अयोध्या में राम जन्मभूमि/बाबरी मस्जिद विवादित स्थल के पास की भूमि अधिग्रहण करने संबंधी 1993 के केंद्रीय कानून की सांविधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। स्वयं को रामलला का भक्त बताने का दावा करने वाले लखनऊ के दो वकीलों सहित सात व्यक्तियों ने यह याचिका दायर की थी। दलील दी गई थी कि अयोध्या के निश्चित क्षेत्रों का अधिग्रहण कानून, 1993 संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत प्रदत्त और संरक्षित हिंदुओं के धर्म के अधिकार का अतिक्रमण करता है।
आग्रह किया था कि केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार को 1993 के कानून के तहत अधिगृहीत 67.703 एकड़ भूमि, विशेष रूप से श्रीराम जन्मभूमि न्यास, राम जन्मस्थान मंदिर, मानस भवन, संकट मोचन मंदिर, जानकीमहल और कथामंडल स्थित पूजा स्थलों पर पूजा, दर्शन और धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजन में हस्तक्षेप नहीं करने का निर्देश दिया जाए। लेकिन कोर्ट ने याचिका रद्द कर दी थी।




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